श्रीरामायणामृतम् -"रावण को वरदान,दशरथ जी का ऋषि श्रृंगी आश्रम गमन"

 आज की यह ब्लॉग पोष्ट श्रीराम के चरणों में सादर समर्पित है।

सज्जनो! आप सभी के आशीर्वाद से मैंने पुनः रामायण लिखने का तुच्छ प्रयत्न किया है जिसे काव्य खण्डों में विभाजित कर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ,आज के प्रथम प्रसंग में रावण को वरदान,दशरथ जी का ऋषि श्रृंगी आश्रम गमन का वर्णन मैंने चौपाई छंद में करने का प्रयत्न किया है।

अपने इस रामायण को आधार देने के लिए मैंने दोहे छंद के माध्यम से देवी-देवताओं की पूर्व में प्रार्थना करने का प्रयत्न किया है। 

आशा करता हूँ श्रीराम व सभी देवी-देवता के आशीर्वाद के आप सभी भी मेरे इस रामायण को अपना आशीर्वाद प्रदान करने के लिए अपनी पुनीत प्रतिक्रिया अवश्य प्रदान करेंगे।


कठिन यत्न मैं कर रहा,कृपा करें देवेश।
सफल मनोरथ को करें,गौरी पुत्र गणेश।।१।।

करूँ नमन वैकुंठ पति,कृपा करो जगपाल।
वर वह मुझको दो अभी,लिख दूँ काव्य विशाल।।२
 
करूँ नमन माँ शारदे,  देना यह वरदान।
कथा राम की लिख रहा,सफल करो अभियान।।३।।

वंदन करता अब उन्हें,कलम में जो देती बल।
प्रवाह अनपढ़ के कर रही। सुषुप्त बुद्धि हलचल ।।४।।

वंदन अब उनका करूँ,जो रचना आधार।
तुम्हें नमन हे राम है ,सबके प्राणाधार।।५।।

संकट मोचन है नमन,राम भक्त हनुमान।
मार्ग दिखाओ अब हमें,करो राम गुणगान।।६।।
          
Shriramayanaamritam part1


 ।।  चौपाई।।
दैत्य राज रावण अति भारी।जो था पूजै सदा त्रिपुरारि ।।
लंका नगरी का जो राजा। पीड़ित जिससे देव समाजा।।
लंका नगरी के राजा  रावण बाबा भोले शंकर के परम भक्त थे,जिसकी वरदानी शक्ति के समक्ष समस्त देव इन्द्रादि भी टिकने में असमर्थ थे।
ब्रह्मा की वह किया तपस्या।मत हो माँगा मृत्यु समस्या।।
तप की रखने को मर्यादा। ब्रह्मा बोले धन दूँ ज्यादा।।
उनसे तब यह रावण बोला।अमर बनूँ मैं मंशा खोला।।
अमर नहीं जगती में कोई।आया जो है जाए सोई।।
कहा यही रावण तब उनसे।मेरी मृत्यु कठिन हो सबसे।।
फिर तब तथास्तु ब्रह्मा बोले।फिर उसके नाभि अमृत घोले।। अदृश्य हुए वहाँ से ब्रह्मा।हँसा ज़ोर से दैत्य अधर्मा।।
बार-बार वह कहता खुद से। कोई शत्रु मेरा अब से
होगी अब नहीं मृत्यु मेरी। बल से खुद के उसको फेरी।।
चिंता में थे राजा दशरथ।पुत्र प्राप्त हो यही मनोरथ।।
उपाय गुरु से पूछा जाकर।बोले वशिष्ठ तब समझाकर।।
पुत्र कामयेष्टि यज्ञ विकल्प।पूर्ण करे जो सदा संकल्प।।
गुरु वशिष्ठ से दशरथ कहते।चरण कराने उनके गहते।।
वशिष्ठ बोले उनसे ऐसे ।ना हैं ज्ञानी श्रृंगी जैसे।।
यज्ञ कराने को आमंत्रण।चाह कैकेयी को निमंत्रण।।
 तुम सुन लो राजन् भिक्षु बन लो।चरण धरो जा बस यह सुन लो।।
पैदल चलकर दशरथ जाते।आश्रम जाके शीश नवाते।।
वह मुनि चरण अश्रु से धोकर। कहा द्रवित यह उनसे होकर।।
पुत्र कामना मन में इच्छा।पूरित होने देवें दीक्षा।।

चौपाई छंद विधान (मात्रिक छंद परिभाषा)
चौपाई १६ मात्रा का बहुत ही व्यापक छंद है। यह चार चरणों का सम मात्रिक छंद है। चौपाई के दो चरण अर्द्धाली या पद कहलाते हैं। जैसे-
“जय हनुमान ज्ञान गुण सागर। जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।।”
ऐसी चालीस अर्द्धाली की रचना चालीसा के नाम से प्रसिद्ध है। इसके एक चरण में आठ से सोलह वर्ण तक हो सकते हैं, पर मात्राएँ १६ से न्यूनाधिक नहीं हो सकती। दो दो चरण समतुकांत होते हैं। चरणान्त गुरु या दो लघु से होना आवश्यक है।
चौपाई छंद चौकल और अठकल के मेल से बनती है। चार चौकल, दो अठकल या एक अठकल और दो चौकल किसी भी क्रम में हो सकते हैं। समस्त संभावनाएँ निम्न हैं।
४-४-४-४,८-८,४-४-८,४-८-४,८-४-४
चौपाई में कल निर्वहन केवल चतुष्कल और अठकल से होता है। अतः एकल या त्रिकल का प्रयोग करें तो उसके तुरन्त बाद विषम कल शब्द रख समकल बना लें। जैसे ३+३ या ३+१ इत्यादि। चौकल और अठकल के नियम निम्न प्रकार हैं जिनका पालन अत्यंत आवश्यक है।
चौकल = ४ – चौकल में चारों रूप (११११ ,११ २ ,२ ११, २२) मान्य रहते हैं।
(1) चौकल में पूरित जगण (१२१) शब्द, जैसे विचार महान उपाय आदि नहीं आ सकते।

(2) चौकल की प्रथम मात्रा पर कभी भी शब्द समाप्त नहीं हो सकता।
चौकल में ३+१ मान्य है परन्तु १+३ मान्य नहीं है। जैसे ‘व्यर्थ न’ ‘डरो न’ आदि मान्य हैं। ‘डरो न’ पर ध्यान चाहूँगा, १२१ होते हुए भी मान्य है क्योंकि यह पूरित जगण नहीं है। डरो और न दो अलग अलग शब्द हैं। वहीं चौकल में ‘न डरो’ मान्य नहीं है क्योंकि न शब्द चौकल की प्रथम मात्रा पर समाप्त हो रहा है।

३+१ रूप खंडित-चौकल कहलाता है जो चरण के आदि या मध्य में तो मान्य है पर अंत में मान्य नहीं है। ‘डरे न कोई’ से चरण का अंत हो सकता है ‘कोई डरे न’ से नहीं।

अठकल = ८ – अठकल के दो रूप हैं। प्रथम ४+४ अर्थात दो चौकल। दूसरा ३+३+२ है जिसमें त्रिकल के तीनों (१११, १२ और २१) तथा द्विकल के दोनों रूप (११ और २) मान्य हैं।

(१) अठकल की १ से ४ मात्रा पर और ५ से ८ मात्रा पर पूरित जगण – ‘उपाय’ ‘सदैव ‘प्रकार’ जैसा शब्द नहीं आ सकता।

(२) अठकल की प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। ‘राम नाम जप’ सही है जबकि ‘जप राम नाम’ गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है।



पूरित जगण अठकल की तीसरी या चौथी मात्रा से ही प्रारंभ हो सकता है क्योंकि १ और ५ से वर्जित है तथा दूसरी मात्रा से प्रारंभ होने का प्रश्न ही नहीं है, कारण कि प्रथम मात्रा पर शब्द समाप्त नहीं हो सकता। ‘तुम सदैव बढ़’ में जगण तीसरी मात्रा से प्रारंभ हो कर ‘तुम स’ और ‘दैव’ ये दो त्रिकल तथा ‘बढ़’ द्विकल बना रहा है।
राम सहाय न’ में जगण चौथी मात्रा से प्रारंभ हो कर ‘राम स’ और ‘हाय न’ के रूप में दो खंडित चौकल बना रहा


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टिप्पणियाँ

Kavitaon_ki_yatra ने कहा…
जय जय राम🙏🌹🙏
Banke Bihari ने कहा…
आपकी लेखनी ने प्राचीन महाकाव्य को एक नए, सजावटी दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। आपके शब्दों में गहराई और सुंदरता है, जो पाठकों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

"काव्यस्य सौंदर्यम्, लेखनस्य प्रतिभा, अद्भुतम् अस्ति। युष्माकं कार्ये सदा अगाधं सन्देशं बोधयति।" धन्यवाद!
Kavitaon_ki_yatra ने कहा…
भवान् स्नेहपूर्ण च प्रेरकं टिप्पणी मम् हृदयपंकजं आह्लादयति
आपके हृदय स्पर्शी टिप्पणी के लिए आभार महोदय,आप सभी पाठकों के आशीर्वचन ही मुझ अकिंचन को लिखने की प्रेरणा प्रदान करती है🌹🌹🌹

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