चामर छंद जो कि पंद्रह वर्णों का एक वार्णिक छंद है,इसमें ठंड,शीत विषयक छोटी-सी सृजन पुनः आप सबों के समक्ष कठिन शब्दों के अर्थ सहित सादर प्रस्तुत है,आशा करता हूँ यह छंदमय प्रयत्न आपको अवश्यमय पसंद आएगा और गुनगुनाने को विवश कर देगा।यदि आपको तनिक भी ऐसी अनुभूति होती है,तो आपका प्यार,दुलार,आशीर्वाद अवश्यमेव चाहुँगा। चामर छंद का विधान निम्नवत है :- रगण जगण रगण जगण रगण २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१२ ठंड मार शीत बाण हाड़ को कँपा रही। पाप क्या किया बता स्वनाम जो जपा रही ।। प्रीत मीत मानके न वैर भावना रखा। ठंड दंड ताड़ना अमानना नहीं लखा।। रोग भोग भी लिया न मौन भंग ही किया। वेग से प्रवेग से समीर क्यों बहा दिया।। प्राण घ्राण सर्प सा नहीं सुनो करो कभी। क्रोध का प्रमाण शोध ना करा मुझे अभी।। रार वार जो ठना विकल्प कल्प ही नहींं। ऊन चीर ओढ़के डरा नहींं डटा यहीं...
गीत विधान:-
गीत छंदों पर आधारित एक प्यारी विधा है।गीत का शाब्दिक अर्थ है गाने वाली।इस "गीत शब्द " में समाहित अर्थ है गाने के पश्चात मन तार को झंकृत करनेवाली।गीत के विधान को यदि समझा जाय तो गीत छंदों पर आधारित वो विधा है जिसमें गेयता का होना अनिवार्य है,लयबद्धता होना अनिवार्य है।ये छंद मात्रिक या वार्णिक कोई भी हो सकते हैं।सामान्यतः हमने लोकगीतों के बारे में सुना है।लोकगीत अर्थात् क्षेत्र विशेष में प्रचलित भाषा के आधार पर प्रचलित गीत।गीत पारंपरिक व फिल्मी गीत हो सकते हैं।
विधान-गीत के मुख्यतः दो भाग होते हैं:-मुखड़ा और अंतरा।मुखड़ा एक, दो तीन या चार पंक्तियों का होता है।मुखड़े की एक पंक्ति टेक(ठहराव)के रूप में प्रयुक्त होती है जो अंतरे की अंतिम पंक्ति के साथ मिलकर मुखड़े से जोड़ देती है।प्रायः यह टेक मुखड़े की पहली या अंतिम पंक्ति होती है।
अंतरा तीन या उससे अधिक पंक्तियों का छंद होता है।यह छंद स्वैच्छिक होता है यानी गायक के द्वारा स्वयं ग्रहण किया हुआ।गीत के मुखड़े या छंद समान हों ये आवश्यक नहीं।
अलग- अलग पंक्तियों के आधार छंद अलग अलग हो सकते हैं पर लय के अनुसार उनका मिलान आवश्यक है। पंक्तियों की तुकांतता या अतुकांतता गीतकार की इच्छा पर निर्भर होती है लेकिन इसका हर अंतरे में एकसमान होना आवश्यक है। एक गीत में दो या इससे अधिक अंतरे होते हैं तथा एक अंतरे में दो या अधिक पंक्तियां होती हैं।
गीत की भावभूमि हर जगह एकसमान होती है। मुखड़े में गीत का विषय वस्तु होता है जो श्रोता के मन में गीत सुनने की जिज्ञासा पैदा करता है और अंतरे में भावों का विस्तृत प्रदर्शन होता है। अंतरे की संरचना अन्य मुक्तकों की तरह ही होता है यानी प्रथम पंक्ति में विषय का संधान होता है और पूरक पंक्ति के प्रहार में श्रोता को रसमुग्ध करने की क्षमता होनी चाहिए।
पूरक पंक्ति यानी अंतरे की अंतिम पंक्ति और "टेक" एक दूसरे की पूरक होती है। तुकांतता और लय विधान सभी अंतरा में एकसमान होना चाहिए। मुखड़े का लय समान भी हो सकता है और असमान भी, किन्तु "गेयता" किसी भी सूरत में बाधित नहीं होनी चाहिए।
गीत छंदों पर आधारित एक प्यारी विधा है।गीत का शाब्दिक अर्थ है गाने वाली।इस "गीत शब्द " में समाहित अर्थ है गाने के पश्चात मन तार को झंकृत करनेवाली।गीत के विधान को यदि समझा जाय तो गीत छंदों पर आधारित वो विधा है जिसमें गेयता का होना अनिवार्य है,लयबद्धता होना अनिवार्य है।ये छंद मात्रिक या वार्णिक कोई भी हो सकते हैं।सामान्यतः हमने लोकगीतों के बारे में सुना है।लोकगीत अर्थात् क्षेत्र विशेष में प्रचलित भाषा के आधार पर प्रचलित गीत।गीत पारंपरिक व फिल्मी गीत हो सकते हैं।
विधान-गीत के मुख्यतः दो भाग होते हैं:-मुखड़ा और अंतरा।मुखड़ा एक, दो तीन या चार पंक्तियों का होता है।मुखड़े की एक पंक्ति टेक(ठहराव)के रूप में प्रयुक्त होती है जो अंतरे की अंतिम पंक्ति के साथ मिलकर मुखड़े से जोड़ देती है।प्रायः यह टेक मुखड़े की पहली या अंतिम पंक्ति होती है।
अंतरा तीन या उससे अधिक पंक्तियों का छंद होता है।यह छंद स्वैच्छिक होता है यानी गायक के द्वारा स्वयं ग्रहण किया हुआ।गीत के मुखड़े या छंद समान हों ये आवश्यक नहीं।
अलग- अलग पंक्तियों के आधार छंद अलग अलग हो सकते हैं पर लय के अनुसार उनका मिलान आवश्यक है। पंक्तियों की तुकांतता या अतुकांतता गीतकार की इच्छा पर निर्भर होती है लेकिन इसका हर अंतरे में एकसमान होना आवश्यक है। एक गीत में दो या इससे अधिक अंतरे होते हैं तथा एक अंतरे में दो या अधिक पंक्तियां होती हैं।
गीत की भावभूमि हर जगह एकसमान होती है। मुखड़े में गीत का विषय वस्तु होता है जो श्रोता के मन में गीत सुनने की जिज्ञासा पैदा करता है और अंतरे में भावों का विस्तृत प्रदर्शन होता है। अंतरे की संरचना अन्य मुक्तकों की तरह ही होता है यानी प्रथम पंक्ति में विषय का संधान होता है और पूरक पंक्ति के प्रहार में श्रोता को रसमुग्ध करने की क्षमता होनी चाहिए।
पूरक पंक्ति यानी अंतरे की अंतिम पंक्ति और "टेक" एक दूसरे की पूरक होती है। तुकांतता और लय विधान सभी अंतरा में एकसमान होना चाहिए। मुखड़े का लय समान भी हो सकता है और असमान भी, किन्तु "गेयता" किसी भी सूरत में बाधित नहीं होनी चाहिए।
इस पर आधारित शक्ति छंद विधान :-इस मात्रिक छंद को १८ मात्राओं में बाँधा जाता है,विशेष इसमें १ली,६ठी,११वींंं व १६वींं मात्रा लघु अनिवार्य रूप से होती है।
मात्रिक छंद होने के कारण इसमें एक गुरु के बदले दो लघु लेने की छूट छंदाचार्यों के अनुसार रहती है।
इसकी मापनी १२२ १२२ १२२ १२ होती है।
गणावली-यमाता यमाता यमाता लगा
प्रस्तुत गीत की तर्ज :-तुम्हारी नज़र क्यो खफ़ा हो गई!
मुखड़ा-उमंगों भरा ही अभी साल हो,
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो!
उमंगों भरा ही अभी साल हो,
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो !
अंतरा- रहें प्रेम से वैर दिल से मिटा,
गरज ज़ोर से ऐ अमन की घटा,
रहें प्रेम से वैर दिल से मिटा,
गरज ज़ोर से ऐ अमन की घटा,
दया भावना की हृदय ताल हो,
टेक- *सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो !*
उमंगों भरा ही अभी साल हो,
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो।
दूसरा अंतरा-
रहो मन धनी तू कृपण ना कभी।
हृदय जब मिले वैर घटते सभी।।
रहो मन धनी तू कृपण ना कभी।
हृदय जब मिले वैर घटते सभी।।
टेक- *करो तुम विफल अब सुनो चाल को!*
डटे तुम रहो काटने जाल को,
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो!
उमंगों भरा ही अभी साल हो,
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो !
तीसरा अंतरा-नहीं भाग्य कुछ भी यहाँ पर सुनो।
मनुज मार्ग तुम बस सँभल के चुनो।।
नहीं भाग्य कुछ भी यहाँ पर सुनो।
मनुज मार्ग तुम बस सँभल के चुनो।।
टेक-*न जीवन कभी भी अब मुहाल हो!*
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो!
उमंगों भरा ही अभी साल हो,
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो!
उमंगों भरा ही अभी साल हो,
चौथा अंतरा- मनुज हार तुम यूँ नहीं मानना।
तपिश से सभी को सफल जानना।
मनुज हार तुम यूँ नहीं मानना।
तपिश से सभी को सफल जानना।।
मिलाकर रखेंगे यही ठानना!
करो काम जो वह बस कमाल हो।
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो!
उमंगों भरा ही अभी साल हो,
सुखी हों सभी ना बुरा हाल हो !
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